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फुलबाई बारेला: गरीबी से शिक्षिका बनने तक की कहानी
Sep 2, 2024
नमस्ते, मेरा नाम फुलबाई बारेला है। मैं प्राथमिकशाला कोलुखेड़ी में शिक्षिका हूं और अलीपुर गाँव की रहने वाली हूं। मेरे विद्यालय के अधिकांश बच्चे सुदूर आदिवासी क्षेत्रों से आते हैं, और मैं भी आदिवासी क्षेत्र से आती हूं। ये बच्चे मेरे ही समाज के हैं, और इसलिए मैं उनके साथ एक विशेष जुड़ाव महसूस करती हूं।
मैं सिहौर ज़िले के नसरुल्लागंज के एक छोटे से गाँव से हूं। मेरी बचपन की कहानी गरीबी और संघर्ष से भरी हुई है। मेरे पिता मज़दूरी करते थे और महुआ बीनते थे। आज भी वो खेती करते हैं। पांचवी तक मेरी पढ़ाई बहुत कठिनाइयों में हुई। कलम खरीदने के पैसे नहीं थे, इसलिए मैं रिफील से लिखती थी। गर्मियों में हम तेंदुपत्ता और महुआ तोड़ते थे और उन पैसों से कॉपी, किताब, और साबुन खरीदते थे। स्कूल जाने के लिए 15 किलोमीटर पैदल चलना पड़ता था।
पांचवीं कक्षा पास करने के बाद, छठी की पढ़ाई के लिए सात किलोमीटर पैदल चलना पड़ता था। आठवीं पास करने के बाद, 12 किलोमीटर पैदल जाना पड़ता था। आधे समय हम पढ़ाई करते थे और आधे समय खेत में काम करते थे।
12वीं का रिज़ल्ट घोषित होते ही मुझे टीचर की सरकारी नौकरी मिल गई। 2002 में मैं सरकारी टीचर बन गई। स्कूल से घर आने का कोई साधन नहीं था, बीच में नदी भी पड़ती थी, इसलिए मुझे पैदल ही आना-जाना करना पड़ता था। यह सिलसिला 6 वर्षों तक चला।
पहले, हमारे विद्यालय में एनसीईआरटी की किताबें चलती थीं लेकिन मिशन अंकुर ने शिक्षा प्रणाली में काफी बदलाव लाया है। अब हम बच्चों को अक्षर और गिनती को रटाने की बजाय, उन्हें खेल-खेल में और गतिविधियों के माध्यम से सिखाते हैं। इससे बच्चे सीखने में ज़्यादा रुचि लेने लगे हैं। पहले बच्चे गिनती को पहचान नहीं पाते थे, केवल 1 से 100 तक गिन देते थे। अब मिशन अंकुर के तहत हम बच्चों को उदाहरण और गतिविधियों के माध्यम से सिखाते हैं।
बच्चों को पढ़ाने के लिए मैं आसपास की वस्तुओं से टीचिंग लर्निंग मेटेरियल (टीएलएम) बनाती हूं। जैसे- बालू, पत्ते, मिट्टी और कंकड़-पत्थर आदि। जब बच्चे इन चीज़ों को करके देखते हैं, तो वे जल्दी सीखते हैं।
मिशन अंकुर के आने के बाद से बच्चों में पढ़ाई के प्रति रूचि बढ़ी है। पहले बच्चे विद्यालय आने से डरते थे और कई-कई दिन तक स्कूल नहीं आते थे। हमें घर जाकर बच्चों के पेरेंट्स को समझाना पड़ता था, तब बड़ी मुश्किल से बच्चे विद्यालय आते थे। अब, मिशन अंकुर के बाद से बच्चों में पढ़ाई के प्रति रुचि जाग गई है और वे नियमित रूप से स्कूल आने लगे हैं।
अब, बच्चे रुचि लेकर कहानी और कविताएं भी सुनाते हैं। मैं उनसे पूछती हूं कि 18 अंक कहां है तो वे ब्लैकबोर्ड पर दिखा देते हैं। इससे पता चलता है कि बच्चे अब पढ़ाई में दिलचस्पी ले रहे हैं और खेल-खेल में सीखने की विधि उन्हें भा रही है।
जीवन के संघर्ष भरे दौर में भी मैंने कभी हार नहीं मानी। अब मैं अपने अनुभवों का उपयोग करके अपने समाज के बच्चों को शिक्षा के माध्यम से एक उज्जवल भविष्य देने की कोशिश कर रही हूं। मिशन अंकुर ने मेरे और मेरे बच्चों के जीवन में एक नई रौशनी लाई है और मैं उम्मीद करती हूं कि आगे भी हम इसी तरह से मिलकर सीखते और सिखाते रहेंगे।
मुझे गर्व है कि मैं अपने बच्चों को एक अच्छा भविष्य देने की दिशा में काम कर रही हूं। शिक्षा के माध्यम से, मैं उन्हें नए अवसरों और संभावनाओं की दिशा में प्रेरित कर रही हूं। मेरी यात्रा कठिनाइयों से भरी रही है, लेकिन इन संघर्षों ने मुझे मजबूत बनाया है। मैं चाहती हूं कि मेरे बच्चे भी इन कठिनाइयों से लड़कर अपने सपनों को पूरा करें और अपने समाज का नाम रोशन करें।
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