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रीना पाटेदार: शिक्षण उत्कृष्टता की कहानी

Sep 2, 2024

शिक्षिका रीना पाटेदार मिशन अंकुर के अंतर्गत बच्चों की बुनियादी शिक्षा को सुदृढ़ करने के महत्व पर प्रकाश डाल रही हैं। वो बताती हैं कि प्रारंभिक शिक्षा बच्चों के भविष्य की नींव होती है और इसे मज़बूत करना क्यों आवश्यक है। रीना पाटेदार अपने अनुभव साझा करते हुए बताती हैं कि कैसे बच्चों को सही दिशा में शिक्षित करके उनके शैक्षिक और मानसिक विकास में सुधार किया जा सकता है। मिशन अंकुर के माध्यम से वो शिक्षा के महत्व को समझाती हैं और इसके माध्यम से बच्चों को आत्मनिर्भर और सक्षम नागरिक बनाने के अपने प्रयासों का वर्णन करती हैं।

कोई कहता है डॉक्टर बनना है, कोई इंजीनियर तो कोई वैज्ञानिक मगर मेरे ज़हन में बचपन से ही कोई स्पष्टता नहीं थी कि मुझे क्या बनना है। मैंने अपने मायके में 6 वर्षों तक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाया। ऐसा कुछ सुनियोजित नहीं था कि मुझे टीचर ही बनना है, खाली थी इस वजह से पढ़ाने लगी।

मैं रीना पाटेदार, आष्ठा प्रखंड के शाशकीय माध्यमिक शाला, बरछापुरा में पिछले ग्यारह वर्षों से बतौर शिक्षिका कार्यरत हूं। जिस प्रकार से एक कुम्हार मिट्टी को आकार देने का काम करता है, ठीक वैसे ही बच्चों केो जीवन में एक टीचर की भूमिका होती है। बच्चे उस अबोध मिट्टी की तरह होते हैं, उन्हें जिस रूप में ढाला जाए, वे ढल जाते हैं। इसलिए एक शिक्षक का दायित्व है कि वो बच्चों को सही आकार दे ताकि वे ना सिर्फ अपने जीवन में शिक्षित बन पाएं, बल्कि वे संवेदनशील हों, उनमें अनुशासन हो और इन सबसे परे वे बेहतर इंसान बनें।

विद्यालय प्रांगण में पहुंचते ही हंसते-खेलते बच्चों को देखकर मन गुलज़ार हो जाता है और प्रतीत होता है कि एक दिन ज़रूर मेरा सपना साकार होगा ये बच्चे अपने-अपने क्षेत्र में कीर्तिमान स्थापित करेंगे, जिससे ना केवल उनके पेरेन्ट्स गौरवान्वित महसूस करेंगे, बल्कि गाँव, शहर के साथ-साथ हम शिक्षकों के हिस्से भी गर्व करने की अनुभूति होगी। मिशन अंकुर के आगाज़ के साथ ना केवल बच्चे शिक्षा को बेहतर तरीके से ग्रहण कर रहे हैं, बल्कि हम शिक्षकों के पढ़ाने का तरीका भी काफी रोमांचक हो गया है। पांच-सात वर्षीय बच्चों के संग हम इस कदर घुल-मिल जाते हैं जैसे हम कोई अजीज़ दोस्त हों।

प्रार्थना सभा के बाद बच्चों को खिलखिलाकर कक्षा में प्रवेश करते देख मन में ख्याल आता है कि एक वो दौर था जब पाठ्यपुस्तक बच्चों के लिए उबाऊ बन जाता था और एक आज का दौर है जब बच्चों में खेल-खेल में सीखने की ललक परवान पर है। सबसे पहले कक्षा में प्रवेश कर बच्चों से पूछती हूं, “आपने आज क्या नाश्ता किया? घर में आपने कौन-सा गेम खेला? घर में कौन-कौन सदस्य हैं?” इन प्रश्नों का जवाब बड़ा ही दिलचस्प मिलता है। कोई बच्चा कहता है, “बुआ आई है, उनके बच्चों के साथ आंख मिचौली खेली। कोई कहता है कल मम्मी ने आलू की सब्ज़ी बनाई और हमसे पूछा गिनकर बताओ बेटा कितने आलू हैं ये और हमने झट से बता दिया, मम्मी खुश हो गईं।”

बच्चों के संग हम इस तरह की आत्मीय बातचीत इसलिए करते हैं, ताकि पढ़ाई उन्हें बोझ ना लगे और वे क्लास के दौरान खुलकर अपनी शंकाएं हमसे साझा करें। बच्चों के साथ जब हम घुलमिल जाते हैं, तब उनके मन में शिक्षा, शिक्षक और विद्यालय को लेकर अतिरिक्त दबाव नहीं रहता है, इसलिए ज़रूरी है कि हम दोस्त बनकर बच्चों के साथ इस कदर धुलमिल जाएं ताकि उनकी झिझक खत्म हो सके।

हमारे बच्चे अब घर जाकर पेरेन्ट्स से खिलौने खरीदने की ज़िद्द नहीं करते हैं, क्योंकि विद्यालय में खेल-खेल के माध्यम से उन्हें पढ़ाया जाता है और इस वजह से अब वे विद्यालय आने से डरते भी नहीं हैं। हमने बच्चों को बड़े सपने दिखाकर उनको साकार करने की ज़िद्द करना सिखाया है। जब ये बच्चे स्कूल यूनिफॉर्म पहनकर खेल के ज़रिये पढ़ाई की चीज़ें सीखते हैं, तो मुझे अपना बचपन याद आ जाता है जब ना तो मिशन अंकुर था और ना ही दिलचस्प टीएलएम (टीचिंग लर्निंग मटेरियल) जैसी कोई चीज़। मिशन अंकुर मध्य प्रदेश में एक राज्य स्तरीय मिशन है, जिसका उद्देश्य 2026-2027 तक कक्षा 1-3 तक के बच्चों के लिए एफएलएन को मजबूत करना है और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए ना केवल हम जैसे शिक्षक प्रतिबद्द हैं, बल्कि बच्चों का भी इसमें पूरा सहयोग है।

जैसे- बच्चों को जोड़ की अवधारणा बतानी है तो मैं कुछ कुछ कविताओं का चयन करती हूं जिसमें मिलाने की बात होती है। उदाहरण के लिए ‘एक मोटा हाथी’ वाली कविता पर चर्चा करती हूं। मैं इस क्रम में बच्चों से पूछती हूं, “बेटा एक और एक हाथी मिलकर कितने होते हैं? तो उनका जवाब आता है दो।” जब से मिशन अंकुर का आगाज़ हुआ है, बच्चों को पढ़ाने में काफी मज़ा आता है। इससे हमें कुछ बेहतर करने की रूपरेखा मिली है। पहले की शिक्षा पद्धति में ऐसा नहीं था कि एक-एक कर बच्चों को सिखाना है लेकिन अब हम उन्हें स्टेप बाई स्टेप सिखाते हैं, जिसमें भरपूर नयापन होता है।

स्वतंत्र पठन और पुस्तकालय की गतिविधि के माध्यम से कमज़ोर बच्चों पर विषेश ध्यान होता है। पहले बच्चे पांचवी कक्षा में पहुंच जाते थे लेकिन उन्हें हिन्दी पढ़ना नहीं आता था। मिशन अंकुर के बाद से हमारा ध्यान बच्चों को बेहतर शिक्षा मिल सके, इस पर केन्द्रित हो गया है। दूसरी कक्षा के बच्चे जब तीसरी में जा रहे हैं, तब वे बगैर अटके

हिन्दी पढ़ लेते हैं और ये ना सिर्फ मेरी जीत है, बल्कि उन सभी साझा प्रयासों का परिणाम है जो इन बच्चों के लिए खर्च किए जा रहे हैं।

मैं आशावान हूं कि एक दिन वो दौर बनेगा जब मध्यप्रदेश के सरकारी स्कूलों के बच्चे मिसाल पेश करेंगे, ना केवल उनके माता उन पर गर्व करेंगे, बल्कि देश के लिए ये बच्चे किसी असेट (संपत्ति) से कम नहीं होंगे। मेरे बच्चे संघर्ष के काले बादलों को चीरकर एक दिन ज़रूर सफलतारुपी बारिश को अंजाम देंगे।

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